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आधुनिकता की अंधाधुंध दौड़ में गुम होती प्राचीन धार्मिक कुल रीति

रिपोर्ट: अनिल श्रीवास्तव, उपासना डेस्क, महामयी के 108 रूपों में सबसे रौद्र रूप भद्रकाली का है, जो कि लिखित तौर पर राष्ट्रीय कायस्थों के इतिहास में तो वर्णित नही है लेकिन उत्तर प्रदेश के मध्य भाग में स्थित कायस्थों के “डींगर” कुनबे में आज भी प्रतीक बना हुआ है। कुनबे के लोगो का मानना है की भद्रकाली देवी की नाराजगी से परिवार रूपी खानदान में संकट के बादल छा सकते हैं, इसलिए पूरा कुनबा मिलकर देवी को प्रसन्न करने के लिए वर्ष में एक बार एक दिवसीय भव्य पूजन का आयोजन करता है।

उत्तर प्रदेश के सीतापुर जनपद में  पड़ने वाले ग्राम असुवामऊ में सैकडो परिवारों का कायस्थ कुनबा आज भी बड़ी एकता के साथ रहता है। सुविधाओं के आभाव में तकरीबन 80 फीसदी लोग यहाँ से शहरों की ओर पलायन कर चुके हैं।इस कायस्थ समाज के बुजुर्ग बताते हैं काफी साल पहले उनके समाज में संकट के बादल छा गए थे अकारण ही एक एक करके कायस्थ काल के गाल में समाने लगे तब किसी बुद्धिजीवी बुजुर्ग ने महामयी के रौद्र रूप को खुश करने की ठानी।गांव के बाहर समाज के लोगों ने मिलकर भद्रकाली देवी की स्थापना की।

यह व्रत कुछ इस प्रकार रहा जाता है, शारदीय नवरात्रि में सप्तमी के दिन पूरा कुनबा व्रत रह कर प्रसाद बनाता है और रात्रि में  भद्रा लगने पर इसकी पूजा किसी ब्राम्हण से हवन करा कर शुरू की जाती है।उसके बाद ब्राम्हण यथा सम्भव दक्षिणा लेकर चला जाता है।फिर परिवार के लोग पूजा करके प्रसाद के माध्यम से व्रत तोड़ते हैं।इस व्रत का प्रसाद खानदान के अलावा किसी दूसरे को खिलाना तो दूर दिखाया भी नही जा सकता।

उपजाऊ जमीन होने के कारण भौगोलिक रूप से सम्पन्न असुवामऊ गांव में जरूरत की सारी चीजो की अनुपलब्धता की वजह से ज्यादा तर कायस्थ गांव से पलायन कर चुके है लेकिन सप्तमी को पारिवारिक उत्सव मान सभी कायस्थ बन्धु साल में एक बार जरूर एक जुट होते हैं।उस दिन नव विवाहित जोड़ी में बहू, नवजात शिशु को पूजन के माध्यम से डींगर खानदान में मिलाया जाता है।

बदलते परिवेश में कायस्थ बहुल इस गांव में पुराने लोगो के मुताबिक जब से देवी भद्रकाली की कृपा दृष्टि बनी हुई है और कायस्थ समाज दिन ब दिन तरक्की के पथ पर अग्रसर है।

इस समाज ने सरकारी महकमे में कई उच्चाधिकारी, विधायक बच्चा बाबू समेत कई राजनेता, पत्रकार, शिक्षक , बिजनेसमैन व् समाजसेवी दिए।एक दशक पूर्व तक प्रधान भी इसी समाज का चुना जाता आया है।अपनी बुद्धि व विवेक से इस समाज ने अन्य विरादरियों को रोजगार के अवसर दिए हैं।

चक्रतीर्थ नैमिषारण्य से कुछ कोस की दूरी पर बसे इस ऐतिहासिक गाँव में स्थापित भद्रकाली जी की पूजा साल में एक बार सारे परिवार के लोग मिल कर बड़ी उत्सुकता के साथ मनाते हैं।वैसे तो कलम के पुजारी कायस्थों की मुख्य पूजा तो चित्रगुप्त महराज की है जिसमे यहां के कायस्थ बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं लेकिन समाज की रक्षा व उन्नति को लेकर की जा रही यह वार्षिक पूजा भी ऐतिहासिक है।इस पूजा की विधि, देवी फोटो, प्रसाद आदि गैर कुनबा व गैर समाज के समक्ष न रखने की परम्परा होने से कोई चित्र या चल चित्र नही प्रस्तुत कर रहा हूँ।

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